आज मैं अपनी पीड़ा लिखूँ क्या?
लिख दूँ वह सच जो मैं खुद से छुपाती आई हूँ?
यह जीवन भी कितना ऊबड़ - खाबड़ हो गया ना!
पता ही नहीं चला कब मैं खुद से झूठ कहने लगी |
मैं खुश हूँ, मुझे फर्क नहीं पड़ता, मैं हिम्मत से भरी हूँ.......
क्या सच में ऐसा है?
नहीं! यह एक भ्रम है जिसमें मैंने खुद को जकड़ रखा है,
मैं अंदर से टूटी हुई, अंधेरे से भरी हुई और प्यार से कोसों दूर हूँ,
मुझे एक ऐसा साथ चाहिए जिसके कंधे पर सिर रखकर रो सकूँ,
बिना डर के सबकुछ कह देना चाहती हूँ, खुलकर हँसना चाहती हूँ |
अंधेरे में जो रक्त से आँखें भरी रहती हैं उनको पोंछना चाहती हूँ,
खुद से प्यार करना चाहती हूँ, मैं भी अकेलेपन से दूर जाना चाहती हूँ |
हाँ! कभी - कभी त्रस्त आकर सोचती हूँ मौत कब आएगी,
दाग के इस डर से मुक्त हो उड़ान भरना चाहती हूँ,
चरित्र, संस्कार, सभ्यता की इन बेड़ियों में दम घुट चुका है मेरा,
अपने बचपने को फिर से जीवित करना चाहती हूँ |
समझदार बनाए जाती है जिंदगी मुझे नासमझ ही रहने दो,
पीछे लौटकर अपनी हँसी वापस लाना चाहती हूँ,
वो लड़की जो तितलियों के पीछे - पीछे भागा करती थी,
वो लड़की जो फूलों को बालों में लगाकर इठलाया करती थी,
वह गुम हो गई कब मुझे पता भी नहीं चला |
वह जो प्यार को एकमात्र शाश्वत सत्य मानती थी,
आज प्यार से डरकर दूर भागती रहती है,
वह जो खुद पर भरोसा रखती थी कि दुनिया जीत लूँगी मैं,
आज खुद से हारती जा रही है, खुद ही अकेले टूटती जा रही है |
वह लड़की जो दूसरों की दिक्कतें सुलझा देती थी चुटकियों में,
आज अपने ऊपर आये उलझनों की वजह से उलझ गई है अंधेरे में,
वह जो सबकी मदद करती थी बेहिचक, बिना सोचे सबको अपना मानकर,
आज खुद मदद चाहती है इस अंधेरे की दुनिया में |
एक सच्चा साथ नहीं था उस लड़की के पास उसे यही समझ आया,
खो गई उसकी मासूमियत और बचपना जो हर वक़्त मुस्कान बनकर अधरों पर खिलता था,
जो आँखों में चौबीस घंटे तेज जिंदगी में इंद्रधनुष के रंग बिखेरती थी,
आज उसकी आँखों के नीचे काले घेरे हैं और आँखों से खून के आँसू गिरते हैं उसके,
वह जो स्वयं में एक पुष्प थी और सूर्य की प्रथम किरण,
जो डूबती जिंदगियों को हाथ देकर किनारे लाकर जीवन देती थी,
आज खुद डूबती जा रही छल और अकेलेपन के सागर में |
और कितना झूठ बोलूँ?
सच कहूँ तो सब त्याग कर कहीं दूर जाना चाहती हूँ,
दूर रास्तों पर चलती जाऊँ, चलती जाऊँ और सिर्फ चलती जाऊँ पैदल,
जब थक जाऊँ तो बैठ जाऊँ और फिर चलना शुरू करूँ |
और जब मेरे बाल सफेदी धारण करना शुरू करें,
जब मेरी उम्र ढलना शुरू करे तो मैं एक छोटे से घर में रहना चाहूंगी,
उसे सजाऊँगी भिन्न - भिन्न रंग और सुगंध के फूलों के बगीचों से,
जब बारिश होगी तो बारिश में भीगूंगी,
और ठंड से काँपती रात में रचनाएँ लिखना चाहूँगी |
मैं ऐसे ही अकेले जीना चाहती हूँ,
थक गई हूँ प्रश्नों का बोझ ढोते - ढोते,
अपमान और लांछन की वह स्मृति मेरे मस्तिष्क पटल पर छपी है,
बताओ ईश्वर! कब तक और खुद से झूठ बोलूँ?
~~स्वाति 😇
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