ज़ख्म ये इसलिए दिखाती हूं मैं उसका हौसला बढ़ाती हूं कि निशाना अचूक है तेरा सिर को भी मैं कहां बचाती हूं। दर्द जाहिर कभी नहीं करती बस आंखो से छलक जाती हूं जानती हूं मिजाज ज़माने का इसलिए हां में हां मिलाते हूं सब्र करती हूं लाख मैं लेकिन बांध की तरह टूट जाती हूं।। BY PALLAVI MISHRA
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