यूं तो लंबी है अपनों की श्रृंखला
पर कौन कितना 'अपना' है
वक्त बताता है...
वक्त जो ख़ुद अधूरा शब्द है
अधूरापन भर देता है अपनों में
वक्त के साथ-साथ...
अधूरे रह जाते हैं रिश्तो के दायित्व
रिश्ता-दायित्व इसमें भी अधूरापन!!
कोई दूसरा अपनापन भर भी दे
तो वक्त कभी न कभी
एहसास दिलाता है ग़ैर होने का
कोई हुआ भी अपना,
हमने खो दिया उसमें अपना 'अस्तित्व' '
अस्तित्व' इस शब्द के बारे में क्या कहूं!!
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