ढह जाते हैं अक्सर रिश्तों के आशियाने
जिसके नींव गीले हुआ करते हैं।
बुलंदियों को छूते हैं इमारत के कंगूरे
दबी नींव कब-किसे याद आते हैं!!
कुछ हैं हमारे भी अपने
जो वक्त-बेवक्त हमें बुलाते आजमाते हैं।
आजमाईश का ये खेल,
हम भी बखूबी निभा जाते हैं।
उस 'आशियाने' को देते हैं रंग सतरंगी
पर नींव तो हैं अब भी बेरंग....
वोऽऽ कहां समझ पाते हैं...।।
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